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कविता

इश्तहारों के वायदे

अभिमन्यु अनत


उस सरगर्मी की याद दिलाते
कई परचे कई इश्तहार आज भी
गलियों की दीवारों पर घाम-पानी सहते
चिपके है अपनी अस्तित्व-रक्षा के लिए
उन पर छपे लंबे-चौड़े वायदों पर
परतें काई की जमीं जा रही है।
जिन्हें देखते-देखते
आँखें लाल हो जाती है।
तुम्हारे पास पुलिस है हथकड़ियाँ हैं
लोहे की सलाखें वाली चारदिवारी है
मुझे गिरफ्तार करके चढ़ा दो सूली
उसी माला को रस्सी बनाकर
जो कभी तुम्हें पहनाया था
क्योंकि मैंने तुम्हारे ऊपर के विश्वास की
बड़ी बेरहमी से हत्या कर दी है।
इस जुर्म की सजा मुझे दे दो।
मैं इन इश्तहारों को
अब सह नहीं पा रहा हूँ।

 


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